महाराजा जसवंतसिंह प्रथम | जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1626 ई. में बुरहानपुर में हुआ था। 1638 ई. में मुगल सम्राट शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया
महाराजा जसवंतसिंह प्रथम
जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1626 ई. में बुरहानपुर में हुआ था। महाराजा गजसिंह की मृत्यु के बाद 1638 ई. में मुगल सम्राट शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को खिलअत, जड़ाऊ जमधर एवं टीका दिया तथा उसे 4000 जात एवं 4000 सवार का मनसब देकर मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। यह रस्म अदायगी आगरा में की गई। आगरा से महाराजा जसवंतसिंह बादशाह के साथ दिल्ली और वहां से जमरुद गया।
1639 ई. में बादशाह की वर्षगांठ के अवसर पर उसके मनसब में 1000 की वृद्धि कर 5000 जात व 5000 सवार का मनसब प्रदान किया गया। इसी अवसर पर ‘जैतारण का परगना’ भी जसवंत सिंह को मिला। 30 मार्च, 1640 को महाराजा जोधपुर पहुंचे जहां अपनी गद्दी नशीनी का उत्सव मनाया। 1641 में जसवंतसिंह के मनसब में 1000 सवार दो अस्पा और सिह-अस्पा की वृद्धि की गई। 1646 ई. में जसवंत सिंह के मनसब में पुनः 1000 सवार और दो-अस्पा तथा सिंह-अस्पा की वृद्धि की।
1648 ई. में जब शाह अब्बास ने कंधार घेर लिया तो महाराजा को मुगल सेना के साथ कंधार भेजा गया। कंधार में महाराजा ने बड़ी वीरता का परिचय दिया। इस अवसर पर बादशाह शाहजहाँ ने उसके मनसब की संख्या बढ़ाकर 6000 जात व 5000 सवार दु-अस्पा व सिह-अस्पा कर दी। इसके बाद 1655 ई. में उसका मनसब ‘6000 जात/6000 सवार’ हो गया।
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पोकरण विवाद
जैसलमेर के रावल मनोहरदास के निःसंतान मरने पर रामचन्द्र गद्दी पर बैठा। यह कार्य सीहड़ रघुनाथ भणोत की अनुपस्थिति में हुआ था अतः उसके मन में आंट थी। इस समय भाटी सबलसिंह राव रूपसिंह भारमलोत कछवाहा के यहां चाकरी करता था और ‘बादशाह शाहजहां’ की रूपसिंह पर बड़ी कृपा थी। उसने सबलसिंह के वास्ते बादशाह से जैसलमेर राज्य दिलाना स्वीकार करवा लिया। इसी अवसर पर महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से निवेदन कर पोकरण पर अधिकार करने का फरमान लिखा लिया। कुछ दिनों बाद शाहजहां ने सबलसिंह के नाम जैसलमेर का फरमान नाम कर दिया। उधर महाराजा जसवंतसिंह ने सेना भेजकर पोकरण गढ़ पर अधिकार कर लिया। पोकरण पर अधिकार करने के बाद जोधपुर सेना जैसलमेर गई और सबलसिंह को वहां के सिंहासन पर बैठाकर जोधपुर लौट गई।
धरमत का युद्ध (1658 ई.)
मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों (दाराशिकोह, शाहशुजा, औरंगजेब और मुराद) के मध्य उत्तराधिकार को लेकर 1658 व 1659 ई. में कई युद्ध लड़े गए। इनमें घरमत (उज्जैन, मध्य प्रदेश) का युद्ध बड़ा प्रसिद्ध रहा। जसवंतसिंह व अन्य अनेक राजपूत शासक शाही सेना की ओर से दाराशिकोह के पक्ष में तथा औरंगजेब के विपक्ष में लड़े। महाराजा जसवंतसिंह को उसका मनसब 7000 जात और 7000 सवार’ का कराकर तथा एक लाख रुपए और मालवा की सूबेदारी दिलाकर बड़ी सेना के साथ फरवरी, 1658 में औरंगजेब के विरूद्ध रवाना किया।
इसके बाद एक लाख रुपए और अहमदाबाद की सूबेदारी देकर कासिम खां को गुजरात की तरफ भेजा गया और उसे आज्ञा दी गई कि वह उज्जैन में जसवंतसिंह के साथ शामिल हो जाए। कहा जाता है कि पराजित महाराजा जसवंतसिंह धरमत के युद्ध स्थल से लौटकर 4 दिन बाद 19 अप्रैल, 1658 ई. को जोधपुर पहुँचा। बर्नियर, मनूची एवं खाफीखां के अनुसार महाराजा जोधपुर पहुंचे तो ‘उदयपुरी राणी’ (महारानी महामाया) ने किले के द्वार बन्द करवाकर कहलवा भेजा कि राजपूत युद्ध से या तो विजयी लौटते हैं या वहां मर मिटते हैं। महाराजा पराजय के बाद लौट नहीं सकते, वह कोई अन्य व्यक्ति है। यह कहकर वह सती होने की तैयारी करने लगी। अन्त में बताया जाता है. कि रानी की मां ने उसे समझाया तब जाकर दरवाजा खोला। इस कथा को श्यामलदास ने भी मान्यता दी है।
महारानी महामाया
यह जोधपुर नरेश जसवंतसिंह की पत्नी थी। फ्रांस के मशहूर लेखक बर्नियर ने अपनी पुस्तक ‘भारत यात्रा’ में महारानी महामाया का उल्लेख किया है कि एक बार जसवंत सिंह औरंगजेब की सेना से हारकर लौट आए तो उस वीरांगना ने किले के दरवाजे बंद करवा दिए। उन्होंने कहा- यह मेरा पति हो ही नहीं सकता। पत्नी के व्यंग्य करने पर जसवंतसिंह पुनः युद्ध में चला गया जहाँ उन्होंने छत्रपति शिवाजी के साथ मिलकर मुगलों को भारत भूमि से खदेड़ने की योजना बनाई किन्तु इस योजना की भनक औरंगजेब को मिल गई और उसने इसे घूर्ततापूर्वक विफल कर दिया। इधर महारानी भी मुगलों के विरुद्ध संगठन बनाने के प्रयासों में लग गई।
महाराजा जसवंतसिंह प्रथम का औरंगजेब की सेवा में जाना और उस पर हमला करना
जसवंतसिंह धर्मत से जोधपुर तो लौट गया, परन्तु उसको शांति न थी। ज्योंही उसके पास औरंगजेब के राज्यारोहण के समाचार मिले वह उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। ख्यात लेखक यह लिखते हैं कि सम्राट ने उसे फरमान भेजकर आमंत्रित किया। वह दरबार में उपस्थित हुआ तो उसका मनसब बहाल कर दिया गया और उसे कई वस्तुएं भेंट देकर प्रसन्न किया। इसी अवधि में जब शुजा के सल्तनत की तरफ बढ़ने के समाचार मिले तो स्वयं सम्राट जसवन्तसिंह को साथ लेकर उसका विरोध करने चल पड़ा।
विद्रोही राजकुमार और शाही फौजों का मुकाबला खजुवा के मैदान में हुआ जिसमें दक्षिण पाश्र्व का अधिकारी महाराजा था। 5 जनवरी, 1659 को जब प्रातः युद्ध होने को था, जसवन्तसिंह ने जो मन-ही-मन औरंगजेब से रुष्ट था, शुक को यह संवाद गुप्त रीति से भिजवाया कि वह रात को औरंगजेब के डेरे पर हमला कर देगा और तब शुजा शाही फौज पर आक्रमण करे। इसी के अनुसार दिन उगने से कुछ घण्टों पूर्व उसने शाही खेमों पर 10 हजार सैनिकों से हमला बोल दिया। शुजा दिन खुलने को प्रतीक्षा में अपने डेरे में रुका रहा। विजय औरंगजेब की ही रही। ऐसी स्थिति में युद्धस्थल से चल देना जसवन्तसिंह की बुद्धिमत्ता थी।
देवराई/दौराई का युद्ध (मार्च, 1659 ई.)
यह युद्ध अजमेर के निकट दौराई नामक स्थान पर दाराशिकोह और औरंगजेब के मध्य हुआ जिसमें औरंगजेब की विजय हुई। बाद में औरंगजेब मुगल सम्राट बना। आमेर के जयसिंह प्रथम के बीच-बचाव से औरंगजेब और जसवंतसिंह का मनमुटाव कम हो गया। सम्राट औरंगजेब ने पुनः उसके खिताब और मनसब बहाल कर दिए। 1659 ई में महाराजा जसवंतसिंह को गुजरात का सूबेदार बनाया गया।
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शिवाजी के विरुद्ध अभियान
महाराजा जसवंतसिंह को बाद में औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण में भेजा, जहाँ इन्होंने शिवाजी को मुगलों से साँध करने हेतु राजी किया तथा शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को शहजादा मुअज्जम के पास लाये और दोनों के मध्य शांति संधि करवाई।
ई.स. 1667 में महाराजा जसवंत सिंह के औरंगाबाद में रहते समय मुहणोत नैणसी तथा उसका भाई सुन्दरदास दोनों उसके साथ थे। किसी कारण से वह उन दोनों से अप्रसन्न रहने लगा था, जिससे उन दोनों को कैद कर दिया गया। 1668 ई. में महाराजा ने एक लाख रु. दंड लगाकर छोड़ दिया, परन्तु उन्होंने एक पैसा देना स्वीकार न किया। अतः 1669 में उन्हें फिर कैद कर लिया गया। जब कैद में ही उन्हें जोधपुर रवाना किया तो रास्ते में उनकी मृत्यु हो गई। 1670 ई. में महाराजा जसवंत सिंह को गुजरात की दूसरी सूबेदारी मिली।
महाराजा जसवंतसिंह प्रथम की काबुल में नियुक्ति और देहांत
बादशाह का सितंबर, 1673 में फरमान महाराजा के पास पहुंचा कि वह शीघ्र काबुल की ओर प्रस्थान करे। काबुल में पठानों ने शाही अफसर शुजाअत को मार डाला। महाराजा ने वहां पहुंचकर पठानों पर आक्रमण कर नियंत्रण किया। महाराजा ने अपना थाना जमरूद (अफगानिस्तान) बनाया। 28 नवम्बर, सन् 1678 में महाराजा का जमरूद (अफगानिस्तान) में देहान्त हो गया।
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार इस अवसर पर महाराजा की दो रानियां यादववंशी जसकुंवरी, राजा छत्रमल को पुत्री और नरूकी, फतहसिंह की पुत्री साथ थी। वे दोनों ही गर्भवती थी, दोनों ही सती होना चाहती थी, किन्तु उपस्थित सरदारों ने उन्हें समझा-बुझाकर इस निश्चय से विरत किया। परंतु जीवित उत्तराधिकारी के अभाव में औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था कि आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया है।”
महाराजा के 12 रानियां थी जादवराणी जसकुंवरी (करौली के यादव छत्रसिंह की पुत्री) से ‘कुंवर अजीतसिंह’ का जन्म हुआ तथा नरूकी रानी (कंकोड के फतहसिंह की पुत्री) से कुंवर दलथंबण का जन्म हुआ। अजीतसिंह और दलथंबण का जन्म लाहौर में हुआ। था जिनमें से दलथंबण की मृत्यु शैशावस्था में ही हो गई थी।
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महाराजा जसवंतसिंह प्रथम FAQ
Ans – धर्मत युद्ध में
Ans – गजसिंह की मृत्यु के बाद सम्राट शाहजहाँ ने जसवंत सिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार किया था.
Ans – जसवंत सिंह का राज्याभिषेक 1638 ई. को किया गया था.
Ans – जोधपुर नरेश जसवंतसिंह की पत्नी का नाम महारानी महामाया था.
Ans – जसवंत सिंह का देहांत 28 नवम्बर, सन् 1678 को हुआ था.
Ans – जमरूद अफगानिस्तान में
Ans – जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1626 ई. में बुरहानपुर में हुआ था.
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