महाराजा रायसिंह | रायसिंह का जन्म 20 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था। राव कल्याणमल की मृत्यु के बाद उनके सुयोग्य पुत्र राव रायसिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया. राव रायसिंह को राजपुताने का कर्ण’ मुंशी देवी प्रसाद ने कहा है.
महाराजा रायसिंह
रायसिंह का जन्म 20 जुलाई, 1541 ई. को राव कल्याणमल की रानी रत्नावती के गर्भ से हुआ था। राव कल्याणमल की मृत्यु(1574 ई) के बाद उनके सुयोग्य पुत्र राव रायसिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया। रायसिंह ने मुगलों की अच्छी सेवा की थी, वह सम्राट अकबर व जहाँगीर का अत्यधिक विश्वस्त नायक था। रायसिंह ने मुगलों के लिए गुजरात, काबुल और कंधार अभियान किए। रायसिंह ने ‘महाराजा’ की पदवी धारण की।
अकबर ने रायसिंह को 1572 ई. में जोधपुर दिया। इस प्रकार ‘रायसिंह का जोधपुर पर अधिकार” हो गया। गुजरात के मिर्जा बंधुओं के दमन के लिए 1573 ई. में भेजी गयी शाही सेना में रायसिंह भी थे। इसने कठोली नामक स्थान पर मुहम्मद इब्राहीम हुसैन मिर्जा को पराजित किया। जिसका कत्ल कर दिया गया।
इसके बाद 1574 ई. में सिरोही के देवड़ा सुरताण व बीजा देवड़ा के मध्य अनबन हो गई, तब रायसिंह ने सिरोही पर आक्रमण करके बीजा को राज्य से बाहर निकाल दिया और आधा सिरोही मुगलों के अधीन कर मेवाड़ से नाराज होकर आए महाराणा प्रताप के सौतेले भाई जगमाल को दिलवा दिया। सुरताण ने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाओं के मध्य 1583 ई. को ‘दत्ताणी का युद्ध हुआ। दत्ताणी के ने युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई और सुरताण ने सिरोही पर अपना अधिकार कर लिया।
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बादशाह के शासन के 19वें वर्ष (ई.स. 1574) के आरंभ में बादशाह जब अजमेर में था, तो चन्द्रसेन विद्रोही हो गया। चन्द्रसेन में अपने निवास स्थान सिवाना को और सुदृढ़ कर लिया बादशाह ने तत्काल रायसिंह को अनेक सरदारों के साथ चन्द्रसेन को दण्ड देने के लिए भेजा। ‘जोधपुर राज्य की ख्यात’ में लिखा है कि चन्द्रसेन सिवाना शाहबाजखां को सौंपकर पिपलूंद चला गया, तो भी शाही सेना बराबर पीछा करती रही। वहां से वह सिरोही गया, डेढ़ वर्ष पश्चात् दूंगरपुर अपने बहनोई आसकरण के यहां रहा। इसके बाद बांसवाड़ा रहने के बाद महाराणा प्रताप के अधीनस्थ भोमट प्रदेश में रहा, फिर मारवाड़ आकर ‘सिचियाची की गाळ’ में रहते हुए 11 जनवरी, 1581 को उसका देहांत हो गया।
1581 ई. में मानसिंह कच्छवाहा की सहायता के लिए एक जत्था रायसिंह के नेतृत्व में काबुल भेजा गया। इसी प्रकार 1585 ई. में ब्लूचिस्तान के विद्रोही सरदारों का दमन करने के लिए रायसिंह को भेजा गया। जिसमें रायसिंह सफल हुआ। ई.स. 1586 में बादशाह ने रायसिंह को राजा भगवानदास के साथ लाहौर में नियत किया।

जब खानेखाना ने कन्धार के विद्रोह को दबाने के लिए बादशाह से सहायता मांगी तो 1591 ई. में रायसिंह को उसकी सहायता के लिए भेजा। बादशाह ने खानखाना को थट्टा भेजा तो वहां के स्वामी जानी बेग से उसका सामना हुआ। नवंबर, 1591 को शाही सेना ने जानीबेग पर आक्रमण किया। लेकिन वह परास्त नहीं हुआ। दिसंबर, 1591 में बादशाह ने अपने चार हजारी मनसबदार रायसिंह को खानखाना की सहायता के लिए भेजा। इसी प्रकार बुरहानुल्मुल्क के विरुद्ध दानियाल के 1593 ई. के थट्टा अभियान में रायसिंह सम्मिलित था।
दक्षिण में बुरहान-उल-मुल्क शाही सेवा में नजराना नहीं भेज रहा था। इस अवज्ञा का दंड देने के लिए अक्टूबर, 1593 में शहजादा दानियाल को भेजा। इस अवसर पर रायसिंह, खानखाना आदि भी उसके साथ भेजे तथा शहजादे मुराद को दक्षिण की ओर अग्रसर होने का आदेश दिया। जब यह सेना सरहिंद पहुंची तो दानियाल को बुलाकर खानखाना को इस सेना का अध्यक्ष बनाया गया। उसी वर्ष बादशाह ने आजमखां को दरबार में बुला लिया तथा उसके द्वारा जीता हुआ प्रदेश जूनागढ़ रायसिंह के नाम कर दिया।
जब 1599 ई. एवं 1603 ई. में सलीम के नेतृत्व में मेवाड़ अभियान किया गया तो रायसिंह को भी इस अभियान में सम्मिलित किया गया। अकबर ने रायसिंह की सेवाओं से संतुष्ट होकर उसे 1593 ई. में जूनागढ़ का प्रदेश और 1604 ई. में शमशाबाद तथा नूरपुर की जागीर तथा ‘राय’ की उपाधि प्रदान की। जहाँगीर का विश्वास मानसिंह कच्छवाहा की बजाय रायसिंह पर अधिक था। जब जहाँगीर 1605 ई. में मुगल सम्राट बना तो उसने रायसिंह का मनसब 5000 जात/5000 सवार कर दिया। जहां भी राजस्थान में मुगल हितों की रक्षा करनी होती थी, रायसिंह की सेवाएं ली जाती थी।
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महाराजा रायसिंह के नाम तेरह मुगल फरमान तथा निशान मिले हैं जिनमें रायसिंह को ‘शाही सल्तनत का आधार’ कहा है। जहांगीर ने रायसिंह की नियुक्ति दक्षिण में कर दी थी, जिससे वह बीकानेर से सूरसिंह को साथ लेकर बुरहानपुर चला गया। कुछ दिनों पश्चात् वह बीमार पड़ गया। उस समय सूरसिंह उसके पास ही था। वि.स. 1668 (22 जनवरी, 1612) को रायसिंह का बुरहानपुर में देहांत हो गया।
दयालदास री ख्यात के अनुसार रायसिंह का एक विवाह महाराणा उदयसिंह की पुत्री जसमादे के साथ हुआ था। ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यम्’ से पाया जाता है कि इसी रानी से भूपति और दलपत नाम के दो पुत्र हुए जिनमें भूपसिंह (भूपति) कुंवरपदे में ही मर गया। रायसिंह का दूसरा विवाह वि.स. 1649 (ई.स. 1592) में जैसलमेर के रावल हरराज की पुत्री गंगा से हुआ था, जिससे सूरसिंह का जन्म हुआ।
रायसिंह ने मंत्री कर्मचन्द की देखरेख में बीकानेर के सुदृढ़ किले जूनागढ़ (लालगढ़- Red Fort) का निर्माण सन् 1589-1594 में करवाया। किले के भीतर इसने एक प्रशस्ति लिखवाई जिसे अब ‘रायसिंह प्रशस्ति’ कहते हैं। रायसिंह एक धार्मिक, विद्यानुरागी एवं दानी शासक था। इन्होंने ‘रायसिंह महोत्सव’ ‘वैधक वंशावली, ‘बाल बोधिनी’ व ‘ज्योतिष रत्नमाला’ की भाषा टीका लिखी। ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकाव्यम्’ में महाराजा रायसिंह को ‘राजेन्द्र’ कहा गया है।
इसमें लिखा है कि वह विजित शत्रुओं के साथ बड़े सम्मान का व्यवहार करते थे। रायसिंह के समय में घोर त्रिकाल पड़ा, जिसमें हजारों व्यक्ति एवं पशु मारे गए। महाराजा ने व्यक्तियों के लिए जगह-जगह ‘सदाव्रत’ खोले एवं पशुओं के लिए चारे-पानी की व्यवस्था की। इसलिए मुंशी देवी प्रसाद ने इसे ‘राजपूताने का कर्ण’ की संज्ञा दी है। सन् 1612 ई. में दक्षिण भारत (बुरहानपुर) में इनकी मृत्यु हो गई।
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महाराजा रायसिंह FAQ
Ans मुंशी देवी प्रसाद
Ans – राय सिंह का राज्याभिषेक 1574 ई. को किया गया था.
Ans – कल्याणसिंह के बाद राय सिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया था.
Ans – अकबर ने रायसिंह को 1572 ई. में जोधपुर दिया था.
Ans – दत्ताणी का युद्ध 1583 ई. को हुआ था.
Ans – रायसिंह का देहांत 22 जनवरी, 1612 को बुरहानपुर में हुआ था.
Ans – रायसिंह का जन्म 20 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था.
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