महाराणा प्रताप | प्रतापसिंह राणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था। प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. रविवार को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध ‘बादल महल’ जूनी कचेरी में हुआ।
महाराणा प्रताप
महाराणा प्रतापसिंह राणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था। प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई (ज्येष्ठ शुक्ल 3. विक्रम संवत 1597) रविवार को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध ‘बादल महल’ जूनी कचेरी (Juni Kacheri) में हुआ। राणा उदयसिंह के 20 रानियाँ व 25 पुत्र थे | राण प्रताप जैवन्ता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री) तथा राणा उदयसिंह का पुत्र था।
वह इस पहाड़ी भाग में ‘कीका’ नाम से सम्बोधित किया जाता था जो स्थानीय भाषा में ‘छोटे बच्चे’ का सूचक है। आज भी दक्षिण-पश्चिमी मेवाड़ में पुत्र को ‘कीका’ या ‘कूका’ कहते हैं। 17 वर्ष की उम्र में प्रताप का विवाह रामरख पंवार की पुत्री अजबदे के साथ हुआ, जिससे कुंवर अमरसिंह का जन्म हुआ। मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री फूलकवर का विवाह भी राणा प्रताप से हुआ।
प्रताप ने अपने पिता के साथ जंगला, घाटियों और पहाड़ों में रहकर कठोर जीवन बिताया था। उसके पिता ने भटियाणी रानी धीर बाई पर विशेष अनुराग होने से उनके पुत्र जगमाल को अपना युवराज बनाया था, जबकि अधिकार महाराणा प्रताप का था। रानी के आग्रह से तथा कुछ सरदारों के सहयोग से जगमाल का राजतिलक कर दिया गया।
दाह संस्कार में जगमाल की अनुपस्थिति का कारण जानकर सोनगरा मानसिंह अखैराजोत ने रावत कृष्णदास (सलूंबर वालों का पूर्वज) और रावत सांगा (देवगढ़ वालों का मूल पुरुष) से कहा कि वे चूंडा के पोते हैं इसलिए उत्तराधिकारी का निर्णय उनकी सम्मति से किया जाना चाहिए था। इस पर कृष्णदास और सांगा ने कहा कि ज्येष्ठ कुंवर प्रतापसिंह ही है और वह सब प्रकार से सुयोग्य है, अधिकारी है, अतः वह महाराणा होगा।
रावत कृष्णदास और ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामशाह तंवर ने जगमाल को सिंहासन से उठाकर प्रताप को सिंहासन पर आसीन किया। गोगुन्दा में महादेव बावड़ी पर राणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को राज्याभिषेक किया गया। होली के त्यौहार के दिन महाराणा उदयसिंह के देहान्त के कारण त्यौहार की औख (शोक) नहीं रहे, उसके निवारणार्थ तत्कालीन परिपाटी के अनुसार महाराणा प्रताप ‘अहिड़ा की शिकार करने गया।
प्रताप कुछ समय के बाद कुम्भलगढ़ चला गया जहां राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया। इस पर जगमाल अप्रसन्न होकर अकबर के पास पहुँचा, जिसने उसे पहले जहाजपुर और पीछे आँधी की जागीर दे दी। सिरोही में ही 1583 ई. में दताणी के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी। प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर लगभग 25 वर्षों (फरवरी, 1572-जनवरी, 1597 ई.) तक शासन किया।
राणा प्रताप और अकबर इस समय मुगली प्रभाव बढ़ रहा था। अपने कर्तव्य और विचारों से प्रताप ने सामन्तों और भीलों का एक गुट पूंजा भील के नेतृत्व में बनाया जो हर समय देश की रक्षा के लिए उद्यत रहे। उसने प्रथम बार इन्हें अपनी सैन्य व्यवस्था में उच्च पद देकर उनके सम्मान को बढ़ाया। मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए उसने गोगुन्दा से अपना निवास स्थान कुम्भलगढ़ में बदल लिया।
राणा अपने वंश गौरव और व्यक्तिगत विशुद्ध स्थिति को अधिक महत्त्व देता था। अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिए बाध्य होने की सम्भावना से भी प्रताप में एक स्वाभाविक अरुचि थी। वह नहीं चाहता था कि मेवाड़ की परम्परा तोड़ने का कलंक उसके सिर मढ़ा जाय।
अकबर मेवाड़ की स्वतंत्रता को समाप्त करना चाहता था और प्रताप उसको हरहाल में बचाए रखना चाहता था। इस प्रकार दोनों की मनोवृत्ति एवं भावनाओं का एक दूसरे से विपरीत होना ही हल्दीघाटी युद्ध का कारण बन गया। अकबर द्वारा राणा के पास भेजे गए चार शिष्ट मण्डल अकबर ने राणा प्रताप से वार्ता के लिए 4 शिष्टमण्डल भेजे जो क्रमश इस प्रकार थे :-
- जलाल खां सितम्बर, 1572
- कुँवर मानसिंह-अप्रैल, 1573
- भगवन्तदास सितम्बर, 1573
- टोडरमल-दिसम्बर, 1573
अकबर ने अपनी गुजरात विजय के बाद अपने मनसबदार जलाल खाँ कोरची को राणा प्रताप के पास इस आशय से भेजा कि वा (राणा) अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले। राणा प्रताप ने शिष्टता के साथ इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। अप्रैल 1573 ई. में जब मानसिंह ने राणा को इस संबंध में टोला तो उसने अकबर की अधीनता मानने में आनाकानी की। मानसिंह अन्त में असफल होकर लौट गया।
इसके बाद इसी आशय से दो और पैगाम महाराणा के पास भगवन्तदास तथा टोडरमल के नेतृत्व में भेजे गये, परन्तु पहले की भाँति वे भी विफल रहे, अलबत्ता व्यवहार और वार्तालाप में राणा शिष्टता की सीमा में रहा।

मानसिंह का महाराणा प्रताप से मिलना
अकवरनामा और इकबालनामा के अनुसार जब मानसिंह गुजरात से लौट रहा था तो उसे आदेश दिया गया कि वह उदयपुर जाकर राणा प्रताप को समझाये कि वह अकबर की सर्वोपरि शक्ति को मान्यता दे और शाही दरबार में उपस्थित हो मानसिंह के नेतृत्व में भेजे गये शिष्टमण्डल में शाहकुलीखां, जगन्नाथ कछवाहा, राजा गोपाल बहादुर खां, लश्कर खां, जलाल खां व भोज आदि सम्मिलित थे।
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गोपीनाथ शर्मा ने सदाशिव कृत ‘राजरलाकार’ एवं रणछोड़ भट्ट कृत अमरकाव्यम् के आधार पर मत प्रकट किया है कि राणा प्रताप और कुंवर मानसिंह की भेंट गोगुन्दा में हुई थी। अमरकाव्यम्’ में तो स्पष्ट तौर पर लिखा हुआ है कि प्रताप ने मानसिंह का आतिथ्य उदयसागर की पाल पर किया था। दयालदास कृत ‘राणायसो’, ‘रावल राणा री बात’, किशोरदास कृत ‘राजप्रकाश’, ‘सिसोदिया ये ख्यात’ आदि अन्य स्रोतों में मानसिंह और प्रताप के बीच वार्ता उदयसागर में ही होता लिखा है।
सभी आधुनिक इतिहासकारों ने मानसिंह-प्रताप वार्ता उदयपुर में ही होने की पुष्टि की है। समकालीन फारसी तवारीखों, अकबरनामा, तुल्केअकवरी, इकबालनामा, मुतखाब-उत तवारीख आदि ग्रंथों में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जहां प्रताप और मानसिंह के बीच हुई वार्ता के समय कटुता व वैमनस्य उत्पन्न हुआ हो अथवा मानसिंह को अपमानित किया गया हो।
1628 ई. में जीवधर द्वारा लिखित संस्कृत ग्रंथ ‘अमरसार’ में इस घटना का उल्लेख नहीं है। सदाशिव कृत राजरत्नाकर ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि प्रताप ने मानसिंह को सेना सहित भोजन के लिए आमंत्रित किया। बार-बार बुलाने पर भी भोजन के समय राणा प्रताप जब उपस्थित नहीं हुआ तब मानसिंह ने लोगों से प्रताप के न आने का कारण पूछा। धीमी आवाज में किसी ने कहा कि प्रताप अपने को उच्च कुल का क्षत्रिय मानता है और आपका संबंध यवनों से है, अतः आपके साथ बैठकर प्रताप भोजन करने के पक्ष में नहीं है।
मानसिंह के चले जाने के पश्चात् प्रताप ने पाकशाला को गंगाजल से धुलवाया और शास्त्रोक्त तरीके से उसे पवित्र किया। मानसिंह को जब इसकी सूचना मिली तो वह बड़ा कुछ हुआ और उसने प्रताप को चुनौती भरा पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि “आपने पवित्रता से जिस तरह क्षत्रियत्व को कायम रखा है उसको रणभूमि में दिखावें।” अकबर के आदेश से वह शाही सेना के साथ मेवाह पर चढ़ आया। रणछोड़ रचित राजप्रशस्ति में केवल यह लिखा है कि भोजन के प्रसंग को लेकर प्रताप और मानसिंह के बीच वैमनस्य हो गया।
राजप्रकाश के लेखक किशोरदास का कथन है कि प्रताप ने मानसिंह को भोजन के लिए आमंत्रित किया। दो पंक्तियों में भोजन के लिए बैठने की व्यवस्था की गई थी। मानसिंह ने प्रताप को एक पतल पर बैठने का आग्रह किया। प्रताप नहीं बैठा क्योंकि एक भूपति की भांति भोजन करने के लिए वहां कोई व्यवस्था नहीं थी, “प्रताप किण री पाति, भूपति जोमैं भाति।” मानसिंह खिसियाकर भोजन किए बिना उठकर चला गया। उसने अकबर को राणा के विरुद्ध उकसाया।

जयपुर वंशावली और कछवाहा वंशावली में भी इस घटना का विवरण मिलता है। इनमें एक विशेष बात यह है कि राणा प्रताप के पास ‘रामप्रसाद’ नाम का एक हाथी था जिसकी ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। अकबर इस हाथी को प्राप्त करने का इच्छुक था। मानसिंह ने इस हाथी को प्रताप से अकबर के लिए मांगा।
प्रताप ने इसे देने से इंकार कर दिया। प्रताप पेट दर्द का बहाना बनाकर मानसिंह के साथ भोजन करने नहीं बैठा। मानसिंह ने भोजन में परोसी गई खीर अपने साथ लाये तीन सौ कुत्तों को खिला दी। मानसिंह ने युद्ध की धमकी दी और वह भोजनशाला से उठकर चला गया।
कर्नल टॉड ने भी इसका समर्थन किया है। बताया जाता है कि यहाँ एक भोज का आयोजन राणा की तरफ से आतिथ्य के रूप में किया गया था, जिसमें राणा ने स्वयं उपस्थित न होकर अपने कुँवर अमरसिंह को भेजा। जब यह पूछा गया कि राणा इसमें सम्मिलित क्यों नहीं हुए तो यह बता दिया गया कि वे कुछ अस्वस्थ हैं।
मानसिंह ताड़ गया कि राणा उससे परहेज करते हैं, क्योंकि कच्छवाहों ने अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिया है। कुँवर बिना भोजन किए वहाँ से चला गया और ठीक इस घटना के बाद अपमान का बदला लेने के लिए मुगल सेना को लेकर मेवाड़ में आ धमका। मानसिंह और प्रताप के मिलने का स्थान अबुल फजल ने गोगुन्दा दिया है, न कि उदयसागर। राज रत्नाकर तथा अमरकाव्य में मानसिंह महाराणा प्रताप की भेंट अच्छे ढंग से होने का उल्लेख है।
आधुनिक इतिहासकार कर्नल टॉड, श्यामलदास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि ने स्वीकार किया है कि भोजन के समय प्रताप और मानसिंह के बीच कटुता व वैमनस्य हुआ था और इनके विपरीत आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव और गोपीनाथ शर्मा ने उपर्युक्त ग्रंथों में दिये विवरणों को मात्र चारणों और भाटों के मस्तिष्क की उपज माना है। रघुवीरसिंह की मान्यता है कि विदाई के समय कोई विरस व अप्रिय घटना निश्चय रूप से हुई थी। लेकिन साथ ही वे लिखते हैं कि उदयसागर की पाल पर मानसिंह और प्रताप के बीच हुई वार्ता से संबंधित बाद के ग्रंथों, ख्यातों आदि में दिए हुए विवरण अतिरजित और अविश्वसनीय हैं।
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स्वभूमिध्वंस की नीति :
प्रताप ने जब अकबर की एक भी बात न मानी तो वह भी ताड़ गया कि इसकी प्रतिक्रिया उसके राज्य के लिए भयंकर परिणाम ला सकती है। यह समझते हुए उसने पूँजा नामी नेता को अपने भील सहयोगियों के साथ बुलाकर मेवाड़ की सुरक्षा प्रबन्ध में लगाया। जिस भूमि पर प्रताप अपना नियंत्रण नहीं रख सका वहां उसने ‘स्वभूमिध्वंस की नीति’ (स्कॉर्चड् अष्ट पॉलिसी) का अनुसरण किया।
मेवाड़ के हरे-भरे भाग को तहस-नहस इसलिए करवाया गया ताकि शत्रु-दल इसका उपयोग न कर सके प्रताप ने मेवाड़ के केंद्रीय उपजाऊ भाग की जनता को कुम्भलगढ़ और केलवाड़ा की ओर पहाड़ी क्षेत्र में जाने के आदेश दिये जिसम भीतरी गिर्वा और मुगल अधीन मेवाड़ के बीच के भूखण्ड में यातायात के साधन, खाद्य पदार्थ एवं घास उपलब्ध न हो सके।
मानसिंह का कूच करना अबुल फजल एवं बदायूँनी के अनुसार 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह अजमेर से रवाना होकर माण्डलगढ मोही आदि मुकामों से गुजरता हुआ खमनौर के पास मोलेला गाँव में जा टिका। प्रताप ने भी लोहसिंह में अपने डेरे डाले। अकबर की ओर सेनानायक कुँवर मानसिंह कच्छवाहा एवं राणा प्रताप की ओर से पठान हाकिम खाँ सूर थे। मुगल इतिहास में यह पहला अवसर था जब किस हिन्दू को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बना कर भेजा गया था। बदायूंनी ने अपने संरक्षक नकीब खां से भी इस युद्ध में चलने के लिए कहा उसने उत्तर दिया कि “यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।”
महाराणा प्रताप की सेना की स्थिति :
वीर विनोद में उल्लेखित है कि मेवाड़ की ख्यातों के अनुसार मानसिंह के अधीन 80,000 सैनिक अ प्रताप के पास 20,000 सैनिक थे। नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40,000 सैनिक और प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक युद्ध में उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी के अनुसार मानसिंह की सेना में 5,000 सैनिक तथा प्रताप की सेना में 3,000 घुड़सवार मान्यतानुसार दोनों की सेना का अनुपात 4:1 (80,000/20,000) था।
मुगल सेना में हरावल (सेना का सबसे आगे वाला भाग) का नेतृत्व सैयद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बाद रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खां थे। प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खां सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशा पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, पुरोहित जगन्नाथ, सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का राव सांगा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास आदि शामिल थे।
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प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान :
5 दिसम्बर, 1584 को आमेर के राजा भारमल के छोटे पुत्र ‘कछवाह जगन्नाथ’ को अजमेर का सूबेदार बनाकर उसके नेतृत्व में एक सशक्त सेना मेवाड़ भेजी गयी। जगन्नाथ कछवाहा को भी सफलता नहीं मिली अपितु 1585 में असफल एवं निराश होकर लौटते वक्त उसकी मांडलगढ़ में मृत्यु हो गई। महाराणा प्रताप ने बदला लेने के लिए।
आमेर के क्षेत्र पर आक्रमण कर मालपुरा को लूटा व झालरा तालाब के निकट शिव मंदिर ‘नीलकण्ठ महादेव’ का निर्माण करवाया। सैयद राजू व जगन्नाथ कछवाह के अथक प्रयासों के बाद भी वे प्रताप को पकड़ने में सफल नहीं हो सके। अकबर को अब विश्वास हो गया कि न तो प्रताप पकड़ा जा सकता है और न ही उससे अपनी प्रभुता स्वीकार करवाई जा सकती है। अकबर अब पश्चिमोत्तर समस्या में उलझ गया और प्रताप के विरुद्ध अभियान समाप्त कर दिया।
सन् 1585 के बाद अकबर ने मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं किया। राणा ने पहले गोगुन्दा फिर कुंभलगढ़ को तत्पश्चात् चावण्ड को अपनी आपातकालीन नई राजधानी बनाया। जहाँ अनेक महल, चामुण्डा मंदिर आदि का निर्माण किया। जीवधर की रचना ‘अमरसार’ के अनुसार प्रताप ने ऐसा सुदृढ़ शासन स्थापित कर लिया था कि महिलाओं और बच्चों तक को किसी से भय नहीं रहा।
अन्त में धनुष प्रत्यंचा के खींचने के प्रयत्न में पाँव में किसी असावधानी से कमान से लग जाने से राणा अस्वस्थ हो गया। 19 जनवरी, 1597 ई. को 57 वर्ष (9 महीने, 56 वर्ष) की आयु में राणा का देहांत हो गया। राणा देहांत पर मुगल सम्राट अकबर ने भी शोक प्रकट किया था। इस अवसर पर समकालीन प्रसिद्ध कवि दुरसा आढ़ा ने मुगल दरबार में निम्न दोहा सुनाया तो अकबर भाव-विह्वल हो उठा। उसने कवि को पारितोषिक देकर सम्मानित किया था।
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महाराणा प्रताप FAQ
Ans – राणा उदय सिंह का ज्येष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप थे.
Ans – प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को हुआ था.
Ans – प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध ‘बादल महल’ जूनी कचेरी में हुआ था.
Ans – प्रताप सिंह का विवाह 17 वर्ष की आयु में कर दिया गया था.
Ans – राणा प्रताप ने रामरख पंवार की पुत्री अजबदे व मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री फूलकवर से किया था.
Ans – राणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को राज्याभिषेक किया गया था.
Ans – गोगुन्दा में महादेव बावड़ी पर राणा प्रताप का राज्याभिषेक किया गया था.
Ans – राणा प्रताप का देहांत 19 जनवरी, 1597 ई. को हुआ था.
Ans – राणा प्रताप का देहांत 57 वर्षकी आयु में हुआ था.
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