मध्यकालीन न्याय व्यवस्था | खालसा क्षेत्र में न्याय का कार्य हाकिमों के द्वारा किया जाता था, जागीर में जागीरदार न्यायाधिकारी होता था। न्याय का आधार परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी।
मध्यकालीन न्याय व्यवस्था
खालसा क्षेत्र में न्याय का कार्य हाकिमों के द्वारा किया जाता था, जागीर में जागीरदार न्यायाधिकारी होता था। जातीय पंचायतें भी होती थी। छोटी चोरियों और सामाजिक अपराध सम्बन्धित झगड़े जाति पंचायत, ग्राम पंचायत द्वारा सुलझा लियें जाते थे, वहाँ नहीं सुलझने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते। भूमि विवाद सम्बन्धित झगड़े भी आवश्यकता पड़ने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते थे। बड़े अपराध एवं मृत्यु दण्ड सम्बन्धित विवादों में अन्तिम निर्णय राजा का होता था। न्याय का आधार परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी।
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एक ही अपराध के लिये दण्ड देते समय दोनों अपराधी और जिसके विरूद्ध अपराध किया गया की सामाजिक स्थिति देखकर ही दण्ड दिया जाता था। न्याय व्यवस्था के अनुसार सामन्त को ‘सरणा’ (शरणागत) का अधिकार था। यदि कोई सामन्त की शरण में चला जाय तो उसकी रक्षा करना सामन्त की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता था। कई बार अपराधी भी सामन्त की शरण में चले जाते थे, जिसका समाज और न्याय व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता था। मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषता न्याय का सस्ता होना और शीघ्र होना था। उस समय दण्डविधान भी कठोर नहीं थे।

मध्यकालीन न्याय व्यवस्था
जातीय पंचायत : सामाजिक संस्था के रूप में हमें जातीय पंचायतें प्रत्येक गाँव, कस्बे तथा नगरों में मिलती हैं। जितनी जातियाँ एक स्थान पर होती थी उतनी ही पंचायतें वहाँ होती थी। आज भी इनका वही स्वरूप दिखायी देता है, परन्तु उसका यह मध्ययुगीन प्रभाव नहीं दिखायी देता ये पंचायतें विवाह सम्बन्धी झगड़ों, व्यभिचार के आरोपों, कुटुम्ब की कटुताओं तथा जाति के सदस्यों की अशिष्टता सम्बन्धी कार्यों की जाँच किया करती थी और उस संबंध में दण्ड तजबीज किया करती थी। दण्ड अपराधी को मान्य होता था और उसका फैसला सरकार भी मानती थी।
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मध्यकालीन अपराध और दण्ड वृहत् कथा कोश ने इस काल के अपराधों और दण्ड-नीति का उल्लेख करते हुए बताया है कि साधारण से साधारण अपराधों के लिए कठोर दण्ड देने की प्रथा थी। प्रथम सोपान तो छोटी अदालतों का था जहाँ राज्य के अधिकारी जिन्हें ‘तलारक्ष’, ‘दण्ड-पाशिक’, ‘आरक्षक’ आदि कहते थे, मामले की जाँच-पड़ताल करते थे। ‘साधानिक’, ‘धर्माधिकारी के समक्ष दोषों की विवेचना करता था। न्याय का अन्तिम सोपान स्वयं शासक होता था।
न्याय के मामलों को निरंकुशता से नहीं निपटाया जा सकता था। छोटे-मोटे मामले गाँव के पंचकुल या नगर के महामात्र सुलझा देते थे। मध्ययुगीन राजस्थान में न्याय व्यवस्था का प्राचीन भारतीय स्वरूप था जिसे मुगलों के सम्पर्क ने परिमार्जित कर दिया था। परगनों में हाकिम न्याय सम्बन्धी निर्णय देते थे। दरोगा-ए-अदालत इनके फैसलों की अपीलें सुनते थे।
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मध्यकालीन न्याय व्यवस्था FAQ
Ans – खालसा क्षेत्र में न्याय का कार्य हाकिमों के द्वारा किया जाता था.
Ans – मध्यकालीन न्याय का आधार परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी.
Ans – मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषता न्याय का सस्ता होना और शीघ्र होना था.
Ans – मध्यकालीन न्याय व्यवस्था का अंतिम सोपान शासक होता था.
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