मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण | मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया जा सकता है. जो की राजस्व के आधार पर, अनुदानित भूमि के आधार पर व उपजाऊपान एंव उत्पादकता के आधार पर
मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण
मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया जा सकता है. जो की राजस्व के आधार पर, अनुदानित भूमि के आधार पर व उपजाऊपान एंव उत्पादकता के आधार पर.
(अ) राजस्व के आधार पर
खालसा भूमि
इस भूमि पर राज्य का सीधा नियन्त्रण होता था। विभिन्न परगनों के अधिक पैदावार वाले गांव खालसा भूमि में रखे जाते थे। अनुमानतः इसमें राज्य की कुल भूमि का बीस प्रतिशत भाग सम्मिलित होता था। इस भूमि में लगान निर्धारण व वसूल करने का कार्य राज्य (केन्द्र) के अधिकारियों द्वारा किया जाता था।
यह भी देखे :- मध्यकालीन सिंचाई के मुख्य यंत्र
जागीर भूमि
यह भूमि सामन्त व अन्य व्यक्तियों को राज्य के प्रति की जाने वाली सेवाओं के बदले में दी जाती थी। जागीरदार की निःसंतान मृत्यु होने पर उसकी जागीर खालसा कर ली जाती थी। जिसे ‘राजगामिता’ कहा जाता था। जागीर भूमि चार प्रकार की थी (1) सामन्त जागीर (2) हुकुमत जागीर (3) भोम की जागीर (4) सासण जागीर। भोम के जागीरदार राज्य को अपनी सेवायें देते थे। सासण जागीर धर्मार्थ, शिक्षण कार्य, साहित्य लेखन के लिए चारण व भाट आदि को अनुदान स्वरूप दी जाती थी। यह माफ़ी जागीर भी कहलाती थी क्योंकि यह कर मुक्त जागीर होती थी।
हुकुमत जागीर मुत्सदियों को दी जाती थी। परगने के हाकिम का उत्तरदायित्व था कि वह लगान राजकोश में जमा कराये। यह वेतन के रूप में भी दी गई जागीर होती थी, जो उस जागीरदार की मृत्यु के बाद खालसा कर दी जाती थी। सामन्त जागीर जन्मजात जागीर थी इसका लगान सामन्त द्वारा वसूल किया जाता था।
इजारा भूमि
यह प्रणाली कमोबेश राजस्थान के सभी भागों में प्रचलित थी इजारा प्रणाली को अनेक स्थानों में ‘ठेका’ अथवा ‘आंकबन्दी’ के नाम से भी जाना जाता था। बीकानेर राज्य में इजारा प्रणाली को ‘मुकाता’ के नाम से जाना जाता था। अत: इजारेदारी, ठेकेदारी, मुकातादारी एवं आंकबंदी एक जैसी ही प्रणालियां थी। इस प्रणाली के अनुसार एक निश्चित परगना अथवा क्षेत्र से राजस्व वसूली का अधिकार सार्वजनिक नीलामी द्वारा उच्चतम बोली लगाने वाले को निश्चित अवधि के लिये दे दिया जाता था। नीलामी द्वारा निर्धारित राशि एकमुश्त अथवा दो किश्तों में भुगतान करनी पड़ती थी।
ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि सम्पूर्ण राज्य से भू-राजस्व वसूली का ठेका एक ही व्यक्ति को दे दिया जाता था। एजारा सामान्यत: महाजनों, बड़े सेठों, जागीरदारों एवं राज्याधिकारियों को दिये जाते थे। अनेक बार एक इजारे के अन्तर्गत तीन-तीन, चार-चार उप-इजारेदार होते थे जिससे किसानों पर राजस्व का भार और अधिक बढ़ जाता था। इजारेदारी प्रथा 1880 ई. के पश्चात् कम होने लगी और 1920 ई. के पश्चात् यह प्रथा काफी कम हो गई। किन्तु यह प्रणाली किसी न किसी रूप में कमोबेश सन् 1949 तक बनी रही।
घरूहाला
उच्च जातियों के व्यक्तियों तथा राज्य के अधिकारियों का ऐसा वर्ग, जिन्हें कृषि में रियायतें दी जाती थी उन्हें ‘घरूहाला’ कहते थे।
भूम/ भोम
भोमियों को कुछ भूमि उनकी चौकीदारी की सेवाओं तथा मार्गों की सुरक्षा के कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए दी जाती थी। भोमिये अधिकांश भील या मीणा होते थे। इस भूमि पर मामूली लगान वसूल किया जाता था। भोमिये भोमिये वे राजपूत थे, जिन्होंने राज्य की रक्षा में अथवा राजकीय सेवाओं के लिए अपना बलिदान किया था। ऐसे लोगों को राज्य की ओर से भूमि दी जाती थी, जिस पर उन्हें नाममात्र का कर देना पड़ता था। इन भोमियों को बेदखल नहीं किया जा सकता था।
मुश्तरका
मारवाड़ राज्य में कुछ गांव ऐसे थे, जिनकी आय जागीरदार और राज्य में बंटी हुई थी। ऐसी भूमि को “मुस्तरका’ कहा जाता था।
(ब) अनुदानित भूमि/माफीदार जोतें
खालसा क्षेत्रों में अनेक माफीदार जोतें भी थी जो राजस्व की देनदारियों से मुक्त थी। यह भूमि विद्वानों, कवियों, ब्राह्मणों, चारणों, भाटों, सम्प्रदायों, पुण्यार्थ कार्यों आदि के लिए दी जाती थी। यह कर मुक्त होती थी। भूमिग्राही इसे बेच नहीं सकता था। इस प्रकार की भूमि विविध नामों से जानी जाती थी। इसके अन्तर्गत ईनाम, अलूफा, खांगी, उदक, मिल्क, भोग, पुण्य इत्यादि भूमि अनुदान सम्मिलित थे। मुगल प्रभाव के कारण इसे मदद-ए-माश भी कहा जाने लगा।
ईनाम
यह भूमि लगान मुक्त होती थी एवं राज्य सेवा के बदले दी जाती थी। इस भूमि का धारक ईनामदार कहलाता था। ईनामदार इस भूमि को बेच नहीं सकता था।
डोली
यह पुण्यार्थ दी जाने वाली भूमि थी जो केवल जागीरदार द्वारा ही दी जाती थी। यह भूमि सभी प्रकार के कर एवं मूल्यांकनों से मुक्त थी। इसके अन्तर्गत गांव का एक निश्चित भू-भाग अथवा कुएं या मैदान, जो प्रदान किया जाता था उसे डोली कहा जाता था।
पसातिया
यह सभी प्रकार के लगानों से मुक्त भूमि थी। यह भूमि दरबार या जागीरदार द्वारा राज्य सेवा करने वाले व्यक्तियों को उनकी राज्य सेवा के बदले प्रदान की जाती थी लेकिन राज्य सेवा की समाप्ति पर इस भूमि को पुनः राज्य अधिकार में ले लिया जाता था।
डूमबा
डूमबा मारवाड़ दरबार द्वारा स्वीकृत एक ऐसी प्रथा थी जो मुख्य रूप से पाली व देसूरी जिलों में पाई जाती थी। इस प्रथा के अन्तर्गत दरबार या जागीरदार द्वारा एक ग्राम प्रदान किया जाता था। वहां लोगों को बसाया जाता था। एवं भूमि को कृषि योग्य बनाकर कृषि कार्य में लिया जाता था। इस भूमि के स्वामी को स्थाई रूप से निश्चित कर देना होता था।
यह भी देखे :- मध्यकालीन राजस्व प्रशासन
(स) उपजाऊपन एवं उत्पादकता के आधार पर वर्गीकरण
कोटा राज्य में झाला जालिमसिंह ने राजस्थान में 1807 ई. में सर्वप्रथम भूमि बन्दोबस्त करवाया। इसके अंतर्गत उसने राज्य की समस्त भूमि को नपवाया। जाति और उपज के अनुकूल उसको पीवत (चाही), गौरमा (कौरवान) और मोरमी (काजू पड़त, नालायक, छापर आदि) तीन भागों में विभाजित किया गया।
- बीड़ भूमि / कच्छ : नदी-नाले के समीप वाली भूमि ‘बीड़’ कहलाती थी।
- माल भूमि : काली उपजाऊ भूमि माल कहलाती थी.
- हकत-बकत : जोती जाने वाली भूमि हकत-बकत भूमि कहलती थी.
- डीमडू : कूएँ या गड्ढे के पास वाली भूमि.
- गोरमो : गाँव के पास वाली भूमि.
- कांकड़ : कंकर वाली जंगल की जमीन. यह नाम गाँव की सीमा के लिए भी प्रयुक्त होता है.
- पीवल भूमि : तालाबों या कूओं द्वारा भूमि को पीवल भूमि कहा जाता है.
- तलाई भूमि : तलब के पेटे की भूमि जिस पर बिना सिंचाई के फसल पैदा होती थी.
- चाही भूमि : ऐसी भूमि जिसमें कुओं, नहरों, तालाबों, नदियों आदि साधनों से सिंचाई संभव थी.
- मगरा भूमि : पहाड़ी क्षेत्र की जमीन मगरा कहलाती थी.
- बारानी भूमि : वह भूमि जिस प्र सिंचाई की सुविधा उपल्न्ध नहीं थी, बारानी भूमि कहलाती थी. यह पुर्णतः बारिश पर ही निर्भर होती थी.
- चारागाह भूमि/चरणोत/गौचर/ओरण : चरनोता उस भूमि को कहते थे, जो गाँव के पशुओं के लिए चारा उगाने के लिए छोड़ी जाती थी। ऐसी भूमि ग्राम पंचायत के नियन्त्रण में होती थी। गांव के सभी पशु सार्वजनिक रूप से इस भूमि पर चरते थे.
- बंजर भूमि : वह भूमि थी जिस पर कभी खेती नहीं की जाती थी। इस भूमि पर गांव का सामूहिक स्वामित्व रहता था। बन्दोबस्त से पूर्व इसका उपयोग निःशुल्क रूप से गांव वालों द्वारा किया जाता था.
- गलत हाँस : पानी से भरी भूमि.
यह भी देखे :- सामन्ती संस्कृति का प्रतिकूल प्रभाव
मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण FAQ
Ans – मध्यकालीन भूमि का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया जा सकता है.
Ans – खालसा भूमि पर राज्य का नियंत्रण होता था.
Ans – जागीर भूमि चार प्रकार की थी.
आर्टिकल को पूरा पढ़ने के लिए आपका बहुत धन्यवाद.. यदि आपको हमारा यह आर्टिकल पसन्द आया तो इसे अपने मित्रों, रिश्तेदारों व अन्य लोगों के साथ शेयर करना मत भूलना ताकि वे भी इस आर्टिकल से संबंधित जानकारी को आसानी से समझ सके.
यह भी देखे :- मध्यकालीन जागीर के प्रकार