मध्यकालीन सैनिक संगठन | मध्यकालीन राजस्थान की सैन्य व्यवस्था पर मुगल सैन्य व्यवस्था का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सेना मुख्यतः दो भागों में बंटी हुई होती थी
मध्यकालीन सैनिक संगठन
मध्यकालीन राजस्थान की सैन्य व्यवस्था पर मुगल सैन्य व्यवस्था का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सेना मुख्यतः दो भागों में बंटी हुई होती थी। एक राजा की सेना, जो ‘अहंदी’ कहलाती थी तथा दूसरी सामन्तों की सेना, जो ‘जमीयत’ कही थी। अहंदी सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण, वेतन आदि कार्य दीवान व मीरबक्शी के अधीन होता था। ‘दाखिली’ सैनिकों की भर्ती यद्यपि राजा की ओर से होती थी किन्तु इनको सामन्तों की कमान या सेवा में रख दिया जाता था। इन्हें चंतन सामन्तों की ओर से दिया जाता था। ‘जमीयत’ के लिए ये कार्य संबंधित सामंत करता था।
सेना में भी अफगानों, रोहिलों, मराठों, सिन्धियों, अहमद-नगरियों आदि को स्थान दिये जाने लगे जिन्हें ‘परदेशी’ कहा जाता था। घोड़ों को दागने की प्रथा चल गई थी। जिनके पास बन्दूक होती थी ये बन्दूकची कहलाते थे। सेना के मुख्य रूप से दो भाग होते थे प्यादे (पैदल) और सवार
मध्यकालीन प्यादे (पैदल सैनिक)
यह राजपूतों की सेना की सबसे बड़ी शाखा भी राजपूतों की पैदल सेना में दो प्रकार के सैनिक होते थे :-
(1) अहशमा सैनिक – जो तीर-कमान, भाला, तलवार, कटार आदि का प्रयोग करते थे।
(2) सेहवन्दी सैनिक – ये बेकार (बेरोजगार) लोगों से लिए जाते थे। ये अस्थाई होते थे व मालगुजारी वसूल करने में मदद करते थे। जयपुर रियासत ने इस कार्य के लिए दादूपंथी नागा साधुओं को भर्ती किया था, जिनका आतंक पूरे राज्य की रियाया पर छाया हुआ था।
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मध्यकालीन सवार
इसमें घुड़सवार एवं शुतरसवार (ऊँट) सम्मिलित थे जो राजपूत सेना के प्राण’ मानी जाती थी। घुड़सवारों में दो प्रकार के घुड़सवार होते थे (1) बारगीर इन सैनिकों को सारा साज-सामान राज्य की ओर से दिया जाता था तथा (2) सिलेदार इन्हें घोड़े, अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य साजो सामान की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती थी। इन्हें केवल युद्ध के अवसर पर भर्ती किया जाता था। इनका वेतन बारगीर से अधिक होता था घोड़ों की संख्या के आधार पर पुदसवारों की निम्नलिखित श्रेणियां थी :-
- निम अस्प – दो घुड़सवारों के पास एक घोड़ा होता था।
- यक अस्पा – यह पुड़सवार जिसके पास एक घोडा हो।
- दुअस्पा – वह घुडसवार जिसके पास दो घोड़े हो।
- सिंह अस्पा – वह घुड़सवार जिसके पास तीन घोड़े हों।
मध्यकालीन घुड़सवारों का वेतन :
घुड़सवारों का वेतन घोड़ों की नस्ल को ध्यान में रखकर दिया जाता था। सर्वाधिक वेतन ‘काल्डा सवार’ (20 रु. मासिक) को मिलता था तत्पश्चात् ‘ताजी सवार (16 रु मासिक), रस्मी सवार (14 रु मासिक), ‘पडीर सवार’ (13रु मासिक) तथा जंगली सवार को सबसे कम वेतन अर्थात् 10 रु. मासिक मिलता था।
मध्यकालीन तोपखाना
लगभग सभी रियासतों का अपना-अपना तोपखाना था, यह मुगली प्रभाव का सौधा परिणाम था। उस समय के तोपखानों को दो भागों में बांट सकते हैं- (1) जिन्सी और (2) दस्ती ‘जिन्सी’ भारी तोपें होती थी, इन्हें रामचंगी’ कहते थे, जो 10-12 सेर तक का गोला फेंक सकती थी और जिन्हें कई बैल खींचते थे। ‘दस्ती’ हल्की तोपें होती थी जो विभिन्न नामों से जानी जाती थी। इनमें मुख्य थी- ‘नरनाल लोगों की पीठ पर ले जाया जाने वाला हल्का तोपखाना, ‘शुतरनाल’ ऊंट पर ले जाई जाने वाली छोटी तोपे, जो ऊँट को बैठाकर चलाई जाती थी। ‘गजनाल’ या हथनाल’ हाथी की पीठ पर लाद कर ले जाने वाला तोपखाना था। समकालीन कागजातों में रहकला’ का भी उल्लेख मिलता है, जो पहिए वाली गाड़ी पर लगी हल्की तोपे होती थी, जिन्हें बैल खींचते थे।
तोपखाने के अधिकारियों में ‘बक्शी-तोपखाना’, ‘दरोगा तोपखाना’ व ‘मुशरिफ तोपखाना’ के उल्लेख मिलते हैं। तोपचियों को ‘गोलन्दाज’ कहा जाता था। सैन्य विभाग को ‘सिलेहखाना’ कहा जाता था। सिलेहखाना शब्द हथियार डिपो के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। पाटन, मेड़ता, फतहपुर, मालपुरा आदि स्थानों पर लड़े गये युद्धों में पराजित होने के कारण राजपूत शासक यह अनुभव करने लगे थे कि यूरोपीय ढंग से शिक्षित सैनिक टुकड़ियों पर विजय प्राप्त करना उनकी सामर्थ्य के बाहर है। कतिपय शासकों ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करने के प्रयत्न भी किये थे। जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए फ्रेंच सेनानायक द बॉय और जर्मन सेनापति समरू की सेवाएं प्राप्त की थी।
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जाट राजा जवाहरसिंह ने रेन मादे और समरू की सैनिक टुकड़ियों को अपनी फौज का अंग बनाया था। कोटा के फौजदार जालिमसिंह ने, जिसका जान बेप्टिस्ट, डुडेरनिक, पलुमेट और पोलमेन जैसे यूरोपियन सेनापतियों से व्यक्तिगत सम्पर्क कोटा राज्य की सेना को आधुनिक ढंग से संगठित करने हेतु महत्वपूर्ण सुधार किये थे। घुड़सवारों के निरीक्षण के लिए घोड़े सहित सभी पुड्सवारों को ‘दीवान-ए-अर्ज’ में लाया जाता था जहां अमीन, दरोगा, तवाइची व मुशरिफ बक्शी द्वारा हुलिया रखने, दागने व निरीक्षण में सहायता करते थे। तनख्वाह जागीर व नकदी जागीर के घोड़े भी दागे जाते थे।
मध्यकालीन हस्ति सेना :
सेना में हाथियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही भारत की विशेषता रही है। लेकिन राजपूत काल में इसके प्रबंध के लिए एक अलग विभाग संगठित किया गया, जिसे ‘पीलखाना’ कहा जाता था। हाथी को चलाने वाला ‘महावत’ कहा जाता था। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप एवं अकबर की सेनाओं के हाथियों की लड़ाई बड़ी घमासान हुई थी। इस युद्ध में मानसिंह के हाथी ‘मरदाना’ ने हाहाकार मचा दिया था। साथ ही राणा के हाथी लूणा व रामप्रसाद एवं मुगलों के हाथी गजमुक्त व गजराज ने भी युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
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मध्यकालीन सैनिक संगठन FAQ
Ans – मध्यकालीन सेना मुख्य रूप से दो भागों में बंटी हुई थी.
Ans – मध्यकालीन सेना के मुख्य भागों का नाम ‘अहंदी व जमीयत’ थे.
Ans – मध्यकालीन राजपूतों की पैदल सेना में दो प्रकार के सैनिक होते थे.
Ans – मध्यकालीन घुड़सवार सैनिक दो प्रकार के घुड़सवार होते थे.
Ans – मध्यकालीन घुड़सवार सैनिकों को वेतन घोड़ों की नस्ल को ध्यान में रखकर दिया जाता था.
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