मध्यकालीन कर व्यवस्था | मध्यकाल में लगान अथवा कर प्राप्त करने के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं की गई थी. शासन के लिए कर प्राप्त करना एक मुख्य पहलु था
मध्यकालीन कर व्यवस्था
मध्यकालीन कर व्यवस्था | मध्यकाल में लगान अथवा कर प्राप्त करने के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं की गई थी. शासन के लिए कर प्राप्त करना एक मुख्य पहलु था.
भू-राजस्व दर
भूमि को उपन के भाग को वसूल करने के कई ढंग राजस्थान में प्रचलित थे। कीमती फसलों पर बीमा के हिसाब से ‘बीघोड़ी’ ली जाती थी। जप्ती और रैयती भूमि की वसूली में अन्तर था। साधारणत: उपज का 1/3 या 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था। यदि अनाज या उपज में वसूली होती थी तो ‘ताटा’, ‘कृता’ आदि से उपद का भाग निर्धारित किया जाता था। ‘लाटा’ में उपज के ढेर लगाये जाते थे और ‘कता’ में शिष्ट ग्रामीणों के अनुमान से उपन निर्धारित की जाती थी। किसान को उपज के भाग के सिवाय अन्य कर भी देने पड़ते थे, जो कई ‘बराड़ों’ के रूप में में लिए जाते थे। ‘हरी’, ‘बाव’, ‘पेशकश’, जकात, गमीन बराड आदि कर मुगलों के सम्पर्क में राजस्थान में चालू हुए
परम्परागत रूप से राजपूताना में 1/7 या 1/8 भाग भूराजस्व दर थी, लेकिन इसके किसानों पर विभिन प्रकार के अनेक कर लगा रखे थे। सभी प्रकार का राजस्व चुकाने के बाद किसान के पास उपज का 2/5 भाग हो पाता था। भूमि कर लगभग उपका 1/6, 1/8, 1/10 आदि भाग के रूप में होता था जो उद्रंग कहलाता था। सम्भवतः उन कृषकों से वसूल होता था जो भूमि को अपनी समझते थे और जिन उनका परम्परा से अधिकार हो गया था, परन्तु कुछ भूमि ऐसी होतो थी जिस पर कोई भी व्यक्ति खेती कर लेता था और उसकी उपज का जो हिस्सा निश्चित जाय राज्य को देता था।
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इस प्रकार की खेती की भूमि से राज्य ‘भाग’ के रूप में कर लेता मा उदंग से कई गुना अधिक होता था। ‘उदंग’ और ‘भाग’ ऐसे भूमि कर मे ‘उद्रंग’ उपज रूप में लिए जब राज्य अपना हिस्सा मुद्रा के रूप में कृषकों से वसूल करता था तो यह कर हिरण्यक कहलाता था। भोग एक सामूहिक कर था जो सभी प्रकार के भूमिकर का घोतक हो सकता है। उसमें उपन का भाग, फल, सब्जी, दूध, आदि जो स्वामित्व के अधिकार के कारण लिए जाते थे, सम्मिलित थे।

सायरा जिहात कर
वस्तुओं के विक्रय बाजार में बेचने के लिए ले जाने पर चुंगी, राहदारी आदि लो थी। इनके अलावा विभिन्न व्यवसायों पर ‘फरीही ती जाती थी। कुछ विशेष त्यौहारों पर विभिन्न जातियों के लोगों को कुछ दामटके देने पड़ते थे। इन सबको ‘सायरा जहाती (सामजिहात) कहा जाता था।
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इनमें अनेक कर महसूल आदि जो धर्मशास्त्र के विरुद्ध में आपवाय’ कहलाते थे। इनमें अघोडी (चमड़े का काम करने वाले थे), ‘ फरोसी’ (लड़के-लड़की के विक्रय मूल्य का धौ’त्यौहारी’ (होली दीपावली पर लिया जाने वाला कर), ‘कागदी’ या ‘नाता’ (ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य लोगों से विधवा के विवाह पर लिया जाने वाला कर), ‘घरेची’ या ‘घरियाना’ (किसी स्त्री को बिना विधिवत् विवाह के रखने पर) आदि प्रकार के कर सायर जिहात कहलाते थे।
दण्ड
के अन्तर्गत वे कर थे जो अपरा से लिए जाते थे या पराजित पक्ष को देने के लिए बाध्य किया जाता था। इसमें मुद्रा, द्रव्य, वस्तु, पशु आदि सम्मिलित थे।
‘दान’ व ‘शुल्क’
वे कर थे जो आयात और निर्यात पर लिए जाते थे। ऐसे करों को ‘मण्डपिका’ अर्थात् चुंगीघरों पर देना होता था। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे कई कर होते थे जिन्हें ‘आभाव्य’ कहते थे जिनमें कन्धक (कन्ये पर ले जाने वाले सामान पर कर), वेणी (बाँस या भारा), कोश्य (पिलाई), खल-भिक्षा आदि (नाई, धोबी, कुम्हार आदि) को दिये जाने वाला भाग है।
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मध्यकालीन कर व्यवस्था FAQ
Ans – मध्यकाल में साधारणत: उपज का 1/3 या 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था.
Ans – मध्यकाल में परम्परागत रूप से राजपूताना में 1/7 या 1/8 भाग भूराजस्व दर थी.
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